वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं! कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है, वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !

बिजली इक कौंध गयी आँखों के आगे तो क्या, बात करते कि मैं लब तश्न-ए-तक़रीर भी था। 

यही है आज़माना तो सताना किसको कहते हैं, अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तहां क्यों हो

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन, दिल के खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है

इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’, कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे 

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता। अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता।।

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